देहरादून में युवाओं के आंदोलन ने पिछले 48 घंटों में अपना रुख बदला है, इस दौरान प्रशासन और पुलिस की तरफ से ऐसी कई रणनीतिक चूक रही है जिसने इस आंदोलन को हवा देने का काम किया। पुलिस इंटेलिजेंस की खामी के चलते ही शायद गुरुवार को इतनी भारी संख्या में युवा इकट्ठा हो पाए और इसके बाद स्थितियां बिगड़ती चली गई। लेकिन इस सब के बीच प्रशासन के अधिकारियों का रवैया और रणनीतिक भूमिका भी कुछ खास अच्छी नहीं रही। शुक्रवार को शहीद स्मारक पर जिस तरह राज्य आंदोलनकारी और प्रशासन के अधिकारियों के बीच तीखी नोकझोंक देखने को मिली उसने यह साफ कर दिया कि देहरादून में प्रशासन स्थितियां संभालने में सक्षम नहीं है। जिले के दोनों ही एडीएम वार्ता या स्थितियों पर नियंत्रण करने की कोशिशों के रूप एक बेहतर प्रशासनिक अधिकारी खुद को साबित नहीं कर पाए। इस मामले में जिलाधिकारी भी बेहतर संवाद के मामले में क्षमतावान नहीं दिखीं।
राज्य आंदोलनकारी या युवाओं से रणनीतिक रूप से संवाद करने का कोई सकारात्मक सिलसिला ही नहीं शुरू किया जा सका। अक्सर इस मामले में जिलाधकारी, अपर जिलाधिकारियों की अहम भूमिका होती है। लेकिन ऐसे हालातों में बेहद महत्वपूर्ण मानी जाने वाली लाइजनिंग या रणनीति के मामले में अधिकारी कुछ नहीं कर पाए। हैरानी इस बात की है कि युवाओं के कुछ लोगों से ही शांतिपूर्ण माहौल में बातचीत तक करने की स्थिति अधिकारी पैदा नहीं कर सके। मौके पर कभी एसएसपी तो कभी एसपी केवल युवाओं को हटाने तक की कोशिश में ही मशगूल दिखाई दिए। यानी इस पूरे आंदोलन के दौरान एक भी प्रशासन का अधिकारी ऐसा नहीं था जो युवाओं को समझा पाता या उन्हें कम से कम सुनने के लिए मना पाता। उल्टा कई मौकों पर तो एडीएम स्तर से ऐसी बात कह दी गई जिससे राज्य आंदोलनकारी भी प्रशासन से नाराज होते हुए दिखाई दिये।
कुल मिलाकर भले ही इन मांगों को सरकार के स्तर पर पूरा किया जाना हो लेकिन संवाद स्थापित करने में देहरादून जिला प्रशासन के अधिकारियों की भूमिका करिश्माई नहीं बन पाई। जाहिर है कि अधिकारियों की अक्षमता इस प्रकरण के दौरान संवादहीनता को बढ़ा रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि चतुर्थ तल समय रहते इस आंकलन को भी शायद कर पाएगा। वैसे तमाम लोग भी अधिकारियों की क्षमताओं पर सवाल उठाते दिखाई दिए हैं।